नाहरों की कुलदेवी

१) किंवदन्ती हैं कि आसधरजी की पीढ़ी में किसी समय दो प्रतिभाशाली पुत्र हुए । एक का नाम सिंहोजी तथा दूसरे का नाम श्रवणजी । सिंहोजी को ही साहजी अथवा शहाजी के नाम से भी उद्वत किया गया है । इनकी प्रतिभा देखकर जोधपुर के महाराज राव जोधाजी ने दोनों को अपने राज्य में बुला लिया । एक भाई को राज्य का प्रधान तथा दूसरे को दीवान नियुक्त कर दिया । जिनका परिवार प्रधान बना वो नार कहलाये तथा जिनका परिवार दीवानजी बना वे नाहर ही रहे । ये नाहर गोत्री दिवानजी आस-पास के गांवो से करवसुली करते थे । उसी में से दो-चार टका दलाली लेते थे, शेष रकम महाराज के खजाने में जमा कराते थे । एक बार दीवानजी चांदी, रकम, नगदी आदि लेकर आ रहे थे, तब डाकूओं ने घेरा डाल दिया और मारने पर आगये । मृत्युभय से नाहरजी ने चामुंडा देवी (सच्चायी माता) को याद किया । तब सच्चायी मॉ, भवानी देवी का रूप लेकर लोहगढ़ (वर्तमान नागोर) के पास कैर के वृक्ष में प्रकट हुई | गड़गडाहट की आवाज हुई । कई डाकू मर गये, कुछ अंधे हो गये, शेष भाग गये । उसी दिन भवानी माता ने कहा ओसियो में (सच्चायी माता) को कई जातिवाले पुजते है परंतु मैं नाहर वंश के लिए यहाँ पर वास करूँगी । उसी दिन के बाद नाहर (दीवानजी) परिवारवालों ने भवानी माँ (गागल माता) की स्थापना प्रारम्भ कर दी । यह घटना वि.सं. 1050 के आसपास की बताते हैं । वर्तमान में नागोर दुर्ग के उपरी परकोटे पर एक छोटी मंदिरी बनी है - वही देवी स्थापना का मूल स्थान माना गया है।

२) एक अन्य किवंदन्ती के अनुसार, जब डाकूओं ने नाहरजी दीवान पर हमला किया तब स्मरण करने पर भवानी माता प्रकट हुई। डाकूओं को पराजित कर माता ने कहा कि आज से मेरा स्थान इसी क्षेत्र में होगा, अत: तुम लोहगढ (नागोर) के दुर्ग में मुझे बिठाओं तथा आसोज सुदी अष्टमी के दिन मेरी पूजा करो । तब दीवानजी ने भवानी माता की स्थापना लोहगढ दुर्ग (नागोर किले) में की । तब से वे ही नाहरों की कुलदेवी हैं।

 ३) आसधर को भवानी माता ही व्याघ्री का रूप लेकर जंगल ले गई थी जहाँ माता ने आसधर को अपने स्तनो से दूध पिलाया । इसलिये शेरनी पर सवार भवानी माता ही नाहरों की कुलदेवी हो सकती हैं।

४) नागोर के किले में भवानी माता के मंदिर के समीप ही एक भेरू मंदिर है जहाँ खेतलिया भेरू स्थापित हैं । ये खेतलिया भेरू, नाहरों के भेरूजी हैं | माताजी के मंदिर के समीप ही खेतलिया भेरूजी का स्थान होना दर्शाता है कि नागोर दुर्ग का मंदिर ही नाहरों की कुलदेवी का मूल स्थल हैं।

५) भवानी माता को चामुंडा महिसासुर मर्दिनी, व्याघ्रीदेवी आदि अन्य नामों से पहचाना जाता हैं । ये शेरनी की सवारी करती हैं। भवानी माता एवं शेरनी पर सवार अन्य माताओं में एक विशिष्ट अंतर यह है कि अन्य माताओं की शेरनी का मुख बायीं और होता है जबकि व्याघ्री (भवानी) माता की शेरनी का मुख दाहिनी और. नागोर किले में स्थित शेरनी का मुख दाहिनी ओर है । संभवत: यही बात इस स्थल को नाहरों की कुलदेवी का स्थल मानने हेतू पर्याप्त हैं।

६) वर्तमान में जो नाहर गोत्रीय लोग है, संभवत: उनकी कुलदेवी इस प्रकार बदलती रही :

(क) जब तक परमार राजपूत के रूप में उपकेषपट्टन (ओसिया) में रहे तब तक वहाँ स्थित चामुंडा देवी को वे देवी रूप में पूजते रहे । इस पूजन विधि में बलि एवं मांस चढ़ाना जायज रहा ।

(ख) जब ये लोग परमार राजपुत से श्रेष्ठि गोत्रीय ओसवाल महाजन जैन बने तब इसी चामुंडा माता को सच्चायी माता के नाम से अपनी कुलदेवी मानकर पूजते रहे । परंतु बलि चढाना, हिंसा करना, मांस खाना, आदि बंद कर दिये।

(ग) कुछ परमार जब माहेश्वरी बने तब मुंधडा की मुंधदेवी को कुलदेवी के रूप में पूजा ।

(घ) नाहर गोत्र पाने पर सभी नाहरो द्वारा भवानी माता (व्याघ्री माता) को कुलदेवी मानना प्रारम्भ किया । नाहरों की कुलदेवी के रूप में भवानी माता की प्रथम स्थापना नागोर दुर्ग में की।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर नागोर दुर्ग में स्थित भवानी माता मंदिर को ही नाहरों की कुलदेवी का मूल स्थल मानना उचित होगा।