भवानी चामुंडा देवी का आचार्य भगवान द्वारा सच्चाय माता नाम रखना |

आचार्यश्री उन नूतन श्रावकों को जैनधर्म का स्याद्वाद - तात्विक ज्ञान एवं आचार व्यवहार क्रिया काण्ड वगैरह ज्ञानाभ्यास करवा रहे थे । विशेषतया अहिंसा परमोधर्म: के विषय में उनके संस्कार इस कदर जमा रहे थे कि जीवों को मारना तो क्या पर किसी जीव को दु:ख पहुँचाना भी एक जबरदस्त पाप है इत्यादि सम्यक् ज्ञान धर्म का प्रचार कर रहे थे।

जब आश्विन मास आया तो इधर तो सूरिजी ने ओली और सिध्दचक्र आराधन का उपदेश दिया, उधर पूर्वसंस्कारों की प्रेरणा से लोगों को देवीपूजन याद आ गया । वे लोग विचार करने लगे कि इधर तो सूरिजी कह रहे हैं कि जीव हिंसा नहीं करना और उधर है देवी चामुण्डा । यदि इसको बलि न दी जाय तो अपने को सुख से रहने नहीं देगी।

इस बात का विचार कर सब लोग एकत्र हो पूज्य आचार्य महाराज की सेवा में आये और हाथ जोड़ कहने लगे कि है पूज्यवर ! यहां की देवी भैंसे और बकरे का बलिदान लेती है और उन्हें मारने के समय स्वयं कौतूहल से प्रसन्न होती है । रक्तांकित भूमि पर आर्द्र चर्म देख खुश होती है और निष्ठुर हृदय वाले उसके भक्त उसे प्रसन्न करने के लिये ऐसे जघन्य कार्य करते हैं । इस पर आचार्यश्री ने कहा कि यह कार्य धर्म के प्रतिकूल एवं महाविभत्सतापूर्ण हैं, अत: आप जैसे धर्मात्माओं को उस देवी के मंदिर में नहीं जाना चाहिये । इस पर भक्त लोगों ने कहा कि हे प्रभो ! यदि हम उस देवी की इस प्रकार पूजा न करें तो वह देवी हमारे सब कुटुम्बों का नाश कर डालेगी । इस पर सूरिजी ने कहा कि तुम क्यों घबराते हो । मैं स्वयं तुम्हारी रक्षा करुंगा ! बस ! उन भक्त लोगोंने सूरिजी पर विश्वास कर देवी के मंदिर जाना एवं पूजा करना बंद कर दिया । जब देवी ने इस बात को अपने ज्ञान से जाना तो वह प्रत्यक्ष रुप से आचार्यश्री के पास जाकर कहने लगी कि हे प्रभो ! मेरे सेवकों को मेरे मंदिर में आने व पूजन करने से रोक दिया यह आपने ठीक नहीं किया हैं ? सूरजी ध्यान में थे अत: कुछ भी उत्तर नहीं दिया इसलिये देवी का क्रोध इतना बढ़ गया कि वह आचार्यश्री को किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाना चाहने लगी । अहा ! क्रोध कैसा पिशाच है कि जिसके वश मनुष्य तो क्या पर देव देवी भी अपना कर्तव्य भूल कर अभिमानी बन जाते हैं । खैर देवी ने एक परोपकारी आचार्य को कष्ट देने का निश्चय कर

लिया । किन्तु आचार्य देव सदैव अप्रमत्तावस्था में रहते थे एवं आप श्रीमान इतने प्रभावशाली थे कि उनके अतिशय प्रभाव के सामने देवी का कुछ भी वश नहीं चला । फिर भी एक समय का जिक्र है कि आचार्यश्री अकाल के समय स्वाध्याय-ध्यान रहित कुछ प्रमाद योनि निद्राधीन थे । उस समय देवी ने उनकी आंखो में वेदना उत्पन्न करदी । सावधान होने पर आचार्यश्री ने जान लिया कि यह तकलीफ देवी ने ही पैदा की है । खैर ऐसा समझ लेने पर भी वे ध्यानस्थ हो गये । बाद चक्रेश्वरी आदि कई देवीयाँ सूरिजी के दर्शनार्थ आईं और सूरिजी के नेत्रों में वेदना देख अपने ज्ञान से सब हाल जान लिया और देवी चामुंडा को बुलाया एवं शक्त उपालम्ब दिया । अत: देवी प्रत्यक्ष रुप होकर सुरीजी से कहने लगी कि यह वेदना मैने ही की है और उसको मैं ही मिटा सकती हूँ । परन्तु आप मेरी प्रिय वस्तु जो करडमरड है वह मुझे दिला दीजियेगा । मैं शीघ्र ही इस वेदना को दूर कर दूंगी और यावचंद्रदिवाकर आपकी किंकरी होकर रहँगी । यह सुन कर आचार्यश्री ने स्वीकार कर लिया कि मैं तुझे करड मरड दिला दूंगा । इस पर देवी संतुष्ट होकर सूरीजी की वेदना का अपहरण कर तथा चक्रेश्वरी देवी का सत्कार सन्मान कर अपने स्थान पर चली गई । बाद चक्रेश्वरी आदि देवीयाँ भी सूरीजी को वन्दन कर अदृश्य हो गई।

प्रात:काल गुरुजी के पास सब श्रध्दालु श्रावक एकत्रित हुए उसको कहा कि हे श्रावकों ! तुम सब सुहाली आदि पकवान तथा प्रत्येक घर से चंदन, अगर, कस्तूरी आदि भव्य भोग एकत्रित करो और इस प्रकार सब सामग्री सजा कर जल्दी ही पौषधागार (पौशाला) में एकत्र मिलो । बाद संघ को साथ लेकर चामुंडा देवी के मंदिर चलेंगें । यह सुन कर श्रावक-गण सब सामग्री एकत्रित कर पौशाला में एकत्रित हो और सूरिजी उन्हें साथ ले चामुंडा के मंदिर में गये । वहां पहुँजकर श्रावकों ने देवी के पकवान पूर्ण सुण्डकों (टोपले) को दोनों हाथों से चूर्ण कर पुन: बोले कि हे देवी अपना इष्ट-मिष्ट ग्रहण करो । यह सुन देवी प्रत्यक्ष रुप हो सूरिजी के सामने खड़ी रही और बोली कि है प्रभो ! मेरी अमिष्ट वस्तु 'कडड़ा मडड़ा' है । गुरु बोले हे देवी ! यह वस्तु तुझे लेना और मुझे देना योग्य नहीं क्योंकि मांसाहारी तो केवल राक्षस ही होते हैं । देवता तो अमृत पान करने वाले होते हैं । हे देवी ! तू देवताओं के आचरण को छोडकर राक्षसों के आचरण को करती हुई क्यों नहीं लजाती है ? हे देवी ! तेरे भक्त लोग भेट में लाये ये पशुओं को तेरे सामने मारकर तुमको इस घोर पाप में शामिल कर उस मांस को वे स्वयं खाते हैं, तू तो कुछ नहीं खाती अत:तू व्यर्थ हिंसात्मक कार्य को अंगीकार करती हुई क्या पाप से नहीं डरती है ? यह तो निर्विवाद है कि चाहे देवता हो चाहे मनुष्य हो पाप कर्म करनेवाले को भवान्तर में नरक अवश्य मिलता है । इस जीव हिंसा के समान भयंकर और कोई पाप नहीं है। यह बात सब दर्शनों (धर्म शास्त्रो) में प्रसिद्ध है । अत: तू जगत की माता है तो तेरा कर्तव्य है कि सब 'जीवों पर दया भाव रखना' और तू इसी 'अहिंसापरमोधर्म' का आश्रय ले इत्यादि । इस प्रकार सूरिजी के कथित उपदेश से प्रतिबुद्ध हुई देवी सूरिजी को कहने लगी, हे प्रभो ! आज से मैं संसार कूप में भी व्रतधारियों का सानिध्य करूंगी । किन्तु हे प्रात:स्मरणीय सूरिपुंगव ! आप यथा समय मुझे स्मरण में रखना और देवतावसर करने पर मुझे भी धर्मलाभ देना । अपने श्रावकों से कुकुंम, नैवेद्य, पुष्प आदि सामग्री से साधार्मिक की तरह मेरी पूजा कराना इत्यादि । दीर्घदर्शी श्रीरत्नप्रभू सूरि ने भविष्य का विचार करके देवी के कथन को स्वीकार कर लिया । क्योंकि सत्पुरूष गुणग्राही होते हैं । पापों को खंडित करनेवाली वह चंडिका सत्य प्रतिज्ञा वाली हुई । यह जान उस दिनसे सच्चायीका नाम से प्रसिद्ध यी । इस प्रकार श्रीरत्नप्रभूसूरीश्वर ने देवी को प्रतिबोध देकर सर्वत्र विहार करते हुये सवा लाख से भी अधिक श्रावकों को प्रतिबोध दिया । और कहा कि आज से यह देवी ओसवालों की कुलदेवी कह लायेगी । उसी दिन सवा लाख श्रावकों को ओसवाल बनाया । उपकेशनगर का नाम औंसिया पड़ा । आचार्य रत्नप्रभू सूरी ने कहा, है देवी आज से तू सच्चायी माता है । इसलिए आज भी ओसिया माता को सच्चायी माता से जानते है ।