उपकेशपुर (ओसियाँ) नगरी का इतिहास

भगवान पार्श्वनाथ के पांचवें पट्टधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि हए । आपके शिष्य श्री रत्नप्रभसूरि अत्यंत प्रभावी आचार्य हुए जिनके समय-काल में ओसिया नगरी मरुप्रदेश की एक बड़ी नगरी हुआ करती थी।

आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने सबसे पहले श्रीमाल के राजा जयसैनादि 90000 घरों के क्षत्रियों को मांस मदिरा छुड़वा कर जैन बनाया था । राजा जयसैन को दो रानियाँ थीं । बड़ी का पुत्र भीमसेन

और छोटी का पुत्र चन्द्रसैन था । जिसमें चन्द्रसैन तो अपने पिता का अनुकरण कर जैनधर्म की उपासना एवं प्रचार करता था पर भीमसैन की माता शिवधर्मोपासिका होने से भीमसैन शिवधर्मोपासक ही रहा । यही कारण था कि दोनों बन्धुओं में धर्म विषय सम्बन्धी द्वंद्वता चलती थी। पर स्वयं राजा जयसैन इन बातों को सुनता था तब उसको बडा भारी दु:ख हुआ करता था और यह भी विचार आया करता था कि यदि भीमसैन को राजसत्ता दे दी गई तो यह धर्मान्धता के कारण जैनधर्मापासकों को सुख से श्वास नहीं लेने देगा इत्यादि।

राजा जयसैन ने अपनी अन्तिमावस्था में अपने मनोगत भाव चन्द्रसैन को कहे जिसके उत्तर में चन्द्रसैन ने कहा पूज्य पिताजी आप इस बात का कुछ भी विचार न करें । यह तो जैसे ज्ञानियों ने भाव देखा है वैसे ही बनेगा । आप तो अन्तिम समय चित्त में समाधि रख्खें । जैनधर्म का यही सार है कि समाधि मरण से आराधिक हो अपना कल्याण करले इत्यादि ।

फिर भी राजा जयसैन के दिल में जैनधर्म की इतनी लगन थी कि उन्होंने उमराव मुत्सद्दी आदि अग्रसरों को बुला कर कहा कि मेरा तो अब अन्तिम समय है और मैं आप लोगों को यह कहे जाता हूँ कि मेरे बाद मेरा पदाधिकार चन्द्रसैन को देना । कारण, यह राजतंत्र चलाने में सर्व प्रकार से योग्य है इत्यादि कह कर राजा जयसैन ने तो अल्प समय में आराधना पूर्वक समाधि के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया।

बाद राजपद के लिए तत्काल ही दो पार्टियाँ बन गई । एक पार्टी का कहना था कि राजा जयसैन की अन्तिमाज्ञानुसार राजपद चन्द्रसैन को दिया जाय । तब दूसरी पार्टी का कहना था कि राजा चाहे धर्मान्धता के कारण चन्द्रसैन को राज दैना कह भी गये हों पर यह नीतिविरुध्द कार्य कैसे किया जाय ? कारण, भीमसैन राजा का बडा पुत्र होने से राज्य का अधिकारी वही है । यह मतभेद केवल राजपद का ही नहीं अपितु धर्म का भी था और इस पक्षान्धता ने इतना जोर पकड़ा कि उसका अन्तिम निर्णय करना तलवार की धार पर आ पड़ा।

चन्द्रसैन जैसा धर्मज्ञ था वैसा ज्ञानी भी था । उसने सोचा कि यह जीव अनंत बार राजा हआ है इससे आत्मिक कल्याण नहीं है । केवल एक नाशवान राज के कारण हजारों लाखों मनुष्यों का स्वाहा हो जायगा । अत: उसने अपनी पार्टीवालों को समझा बुझाकर शान्त किया । बस फिर तो था ही क्या ? शिवोपासकों का पानी नौ गज चढ़ गया और भीमसेन को राजतिलक कर राजा बना ही दिया।

भीमसैन ने राजपद पर आते ही जैनों पर जुल्म शुरु कर दिया मानों कि जैनों से चिरकाल का बदला ही लेना हो ? इस

हालत में चन्द्रसैन की अध्यक्षता में जैनों की एक सभा हुई और उसमें नगर त्याग का निश्चय कर लिया । राजा चन्द्रसैन ने श्रीमालसे आबूकी ओर एक नया नगर बसाने की गरज से प्रस्थान किया तो एक अच्छा उन्नत स्थान आपको मिल गया । बस वहाँ ही उसने नींव डालकर नगर बसाया और उसका नाम चंद्रावती नगरी रख दिया । बस श्रीमाल नगर के जितने जैन थे वे सबके सब नूतन स्थापित की हुई चन्द्रवती मे आकर अपने स्थान बनाकर वहां रहने लगे । वहाँ का राजा चन्द्रसैन को बना दिया । थोड़े ही समय में यह नगरी अलकापुरी के सदृश होगई और आस पास के बहुत से लोग आकर बस गये । वहां के लोगों के कल्याणार्थ राजा चन्द्रसैन ने भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मंदिर भी बनाया, कहा जाता है कि एक समय चन्द्रावती में जैनों के 360 मन्दिर थे अत: जैनपुरी ही कहलाती थी।

जब श्रीमाल से जैन सबके सब चले गये तो पीछे था ही क्या ? फिर भी रहे हुए लोगों की व्यवस्था के लिये कार्यकर्ताओं ने तीन प्रकोट बना दिये प्रथम प्रकोट में कोटिध्वज द्वितीय प्रकोट में लक्षाधिपती और तृतीय प्रकोट में शेष लोग । इस प्रकार व्यवस्था करने पर फिर नगर की थोड़ी बहुत सुन्दरता दीखने लगी।

कई ग्रन्थों में इस नगर की प्राचीनता बतलाते हुए युग में नामों की रुपान्तरता भी बतलाई है । जैसे कृतयुग में रत्नमाल, त्रेतायुग में पुष्पमाल, द्वापर में वीरनगर और कलियुग में श्रीमाल, भिन्नमाल बतलाया है।

राजा भीमसैन के दो पुत्र थे । १ - श्रीपुंज, २ - सुरसुन्दर | और श्रीपुंज के पुत्र उत्पल देव (श्रीकुमार)।

एक समय का जिक्र है कि उत्पलदेवकुमार आपसी ताना के

कारण अपमानित हो नगर से निकल गया । उसकी इच्छा एक नया नगर बसा कर स्वयं राज करने की थी । जब कार्य बनने को होता है तब निमित्त कारण सब अनुकूल मिल ही जाता है । इधर तो राजकुमार अपमानित होकर नगर से निकल रहा था उधर प्रधान का पुत्र ऊहड़ कुमार भी संयोग वश अपमानित होकर राजपुत्र के साथ हो गया।

नया नगर बसाना यह कोई बच्चों का खेल एवं साधारण कार्य नहीं था पर एक बड़ा ही जबरदस्त कार्य था । अत: न अकेला राजकुमार कर सकता था और न मंत्रीपुत्र ही, पर कार्य निकट भविष्य में ही बनने को था कि कुदरत ने दोनों का संयोग बना दिया।

जब दोनों नवयुवकों ने नगर को त्याग कर एक बड़ी आशा पर प्रस्थान कर दिया तब उनको प्रबल पुण्योदय के कारण शकुन वगैरह अच्छे से अच्छे होते गये। अत: क्रमश: वे रास्ता चलते चलते एक जंगल में होकर जा रहे थे तो रास्ते में एक सरदार (प्रधान) मिला । उनके उन्हें तेजपुंज और चेहरेपर वीरता की झलक देख कर पूछा कि कुँवरजी कहाँ से पधारे और कहाँ जा रहे हो ? कुमार ने जबाब दिया कि हम श्रीमाल नगर से आये और एक नया नगर आबाद करने को जा रहे हैं । सरदार ने सुन कर आश्चर्य किया और कहा कुँवरजी नया नगर आबाद करना बच्चों का खेल तो है ही नहीं, आपके पास ऐसी कौन सी सामग्री है कि जिसके आधार पर आप नया नगर बसाने की बातें कर रहे हो ? कुमार ने जवाब दिया कि सामग्री हमारी भुजाओं में भरी हुई है जिससे हम नया नगर आबाद करेंगे । सरदार ने सोचा यह कोई राजवंशी है । अत: उसने प्रार्थना की कि कुंवरजी दिन थोड़ा ही रह गया है, आज तो यहाँ ही विश्राम कीजिये । कुमार ने मंत्री की ओर देखा और दोनों ने एक मत होकर सरदार की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसके साथ हो लिये । सरदार था विराट नगर का संग्रामसिंह नाम का एक साधारण राजपूत।

सरदार ने दोनों मेहमानों को अपने घर लाकर भोजन पानी से स्वागत किया और अपने कुटुम्बियों से सलाह की कि अपने जालणदेवी कन्या बड़ी हो गई है, इन मेहमानों के साथ ब्याही जाय तो भविष्य में एक राजरानी पद को प्राप्त कर लेगी । अत: सरदार ने कुंवरजी से प्रार्थना की कि आपने हमारा मकान पावन किया है तो इसको चिरस्थायी बनाने के लिये हमारी कन्या के साथ शादी कर लिजिये।

कुँवरसाहब ने जबाब दिया कि मैं एक मुसाफिर हूँ आप सोच समझ कर कार्य करें।

सरदार – मैंने ठीक सोच समझ करके ही प्रार्थना की है जिसको आप स्वीकार कीजियेगा।

जब सरदार का अति आग्रह हुआ तो मंत्रीकुमार ऊहड़ ने इसको शुभ शकुन एवं अच्छा निमित्त समझ कर सरदार संग्रामसिंह की प्रार्थना को इस शर्त पर स्वीकार कर ली कि जब हम राज स्थापन कर पावेंगे तब आकर लग्न करेंगे । सरदार ने मंजूर करके सगाई की सब रस्म कर डाली । बस प्रभात होते ही दोनों कुमार वहाँ से रवाना हो गये । उस समय शकुन बहुत ही अच्छे हये अत: दोनों का उत्साह बढ़ता ही गया ।

एक सौदागर कई घोड़े लेकर जा रहा था । मंत्री ऊहड़ ने

जाकर १८० अश्व इस शर्त पर खरीद कर लिये कि जब हम नगर आबाद करेंगे तब तुम्हारे इन अश्वों का मूल्य चुका देंगे । केवल उनके वचन पर विश्वास करके सौदागर ने अश्व दे दिये।

दोनों वीर अश्व लेकर क्रमश: ढेलीपुर (देहली) नगर में पहुँचे । उस समय वहाँ पर श्री साधु नामक राजा राज कर रहा था पर उसके ऐसा नियम कि ६ मास राज कार्य देखता और ६ मास अन्तेवरगृह में रहता । भाग्यवशात् जिस दिन दोनों कुमार देहली पहुँचे उसी दिन राजा ने अन्तेवरगृह में प्रवेश किया । अत: राजकुमार प्रतिदिन दरबार में मुजरा करने को जाकर एक अश्व भेंट कर दिया करता था । ऐसे करते 180 दिनों में 180 अश्व भेंट का समाचार राजा ने सुना तो तुरंत ही कुमार को बुला कर कहा कि समुद्रतट पर भूमि पसन्द कर लो । वहाँ से आगे चल कर एक समुद्र तट पर आकर देखा तो वहाँ उन्होंने भूमि पसंद कर ली क्योंकि जहाँ पानी की प्रचुरता होती है वहाँ सब बातों की सुविधा रहती है । खाद्य पदार्थ भी पैदा होता है जिससे व्यापार उन्नत उठता है इन फायदों को सोच कर उन्होंने वहीं छड़ी रोप दी अर्थात् नगर बसाने का निश्चय कर लिया।

इस बात की इत्तला भिन्नमाल में पहुँची तो वहाँ से हजारों लोग चल कर नूतन नगर में आ बसे । भूमि उसवाली होने से नूतन नगर का नाम उपकेश नगर रख दिया । स्वल्प समय में नगर नौ योजन चौड़ा और १२ योजन लम्बा बस गया । राजा भीमसैन का जनता के प्रति सद्भाव नहीं पर क्रूर भाव ही था । अत: राजा के अत्याचार से दुखित हुई जनता उन दुःखों से मुक्त हो नूतनवास उपकेश नगर में आ बसी । उस नूतन नगर की अधिष्टात्री चामुंडा देवी की स्थापना कर दी।

उस नूतन बसे हये नगर में व्यापार बहुत होने लगा । उस समय नूतन बसे हुये उपकेशपुर में व्यापारार्थ दूर 2 के लोग आकर बस गये । प्रसंगोपात उपकेशपुर की स्थापना कह कर अब मूल विषय पर आते हैं।

आचार्य स्वयंप्रभसूरि के शिष्य आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशपुर पधारे पर किसी एक आदमी ने भी उनका स्वागत सत्कार नहीं किया, इतना ही क्यों पर किसी ने ठहरने के लिये स्थान तक भी नहीं बतलाया । इस हालत में आचार्य श्री ने अपने साधुओं के सात लुणाद्री पहाड़ी पर जाकर ध्यान लगा दिया । उन मांस आहारियों के प्रदेश में जैन मुनियों के लाने योग्य सात्विक पदार्थ के आहार का कहीं पर योग नहीं मिलता था अत: कई अर्सा से मुनि तपस्या किया करते थे और इस प्रकार निरन्तर तपस्या करना कोई साधारण काम भी नहीं था । तब कोई साधुओं को शरीर का निर्वाह न होता देख पारणा करने की इच्छा हुई तो वे गुरु महाराज की आज्ञा लेकर नगर में भिक्षा के लिये गये पर नगर में ऐसा एक भी घर नहीं पाया की जैन साधु भिक्षा ले सके । क्योंकि नगर के तमाम लोग मांसाहरी थे । और मदिरा पीते थे घर 2 में मांस मदिरा का खूब गहरा प्रचार था । रक्त एवं हड्डियाँ घास फूस की भांति दृष्टिगोचर होती थी एवं मदिरा पानी की भाँति पी जाती थी । अत: साधु जैसे रिक्त हाथों गये थे वैसे ही वापिस लौट आये और तपोवृध्दि कर ध्यान में स्थित हो 'ज्ञानामृत भोजनम्' इस युक्ति को चरितार्थ कर रहे थे पर औदारिक शरीर वाले इस प्रकार आहार बिना कहाँ तक रह सकते हैं ?

उपाध्याय वीरधवल ने समय पाकर रत्नप्रभसूरिजी से

निवेदन किया कि हे पूज्यवर ! साधुओं को तप करते बहुत समय हो गया । सब साधु एक से भी नहीं होते हैं । अत: इस प्रकार कैसे काम चलेगा ? इस पर सूरिजी ने आज्ञा फरमा दी कि यदि ऐसा ही है तो यहाँ से विहार करो । इस बात को सुन कर उपाध्यायजी ने भी सब साधुओं को विहार की आज्ञा दे दी और साधुओं ने विहार की तैयारी कर ली । वहाँ की अधिष्टात्री देवीचामुंडा ने अपने ज्ञानद्वारा इस सब हाल को जान विचार किया कि आर्बुदाचल से देवी चक्रेश्वरी के भेजे

ये महात्मा मेरे नगर में आकर इस प्रकार भूखे प्यासे चले जाए इसमें मेरी क्या शोभा रहेगी । अत: देवीचामुंडा ने सूरिजी के चरण कमलों में आकर प्रार्थना की कि है प्रभो ! आप कृपा कर यहाँ चतुर्मास करावें आपको बहुत लाभ होगा इत्यादि । इस पर सूरिजी ने अपने ज्ञान में उपयोग लगा कर देखा और कहा कि जो विकट तपश्चर्या के करनेवाले हैं मेरे पास ठहरें । शेष विहार कर सुविधा के क्षेत्र में चतुर्मास करें। इस पर कनकप्रभादि 465 साधु विहार कर कोरंटपुर की ओर चले गये और शेष 35 साधु सूरिजी की सेवा में रहें, जो मास दो मास तीन मास और चार मास की तपश्चर्या करने में कटिबध्द थे।

इधर तो सूरिश्वरजी अपने शिष्यों के साथ भूखे प्यासे जंगल की पहाड़ी पर ध्यान लगा रहे थे । उधर देवी ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा कर रही थी कि मैंने सूरिजी को वचन देकर चतुर्मास करवाया है तो इनके लिये कोई भी लाभ का कारण हो । ठीक है कि कार्य बनने को होता है तब कोई न कोई निमित्त भी मिल जाता है।

यह बात तो आप पीछे पढ़ आये है कि राजपुत्र उत्पलकुमार ने अपने मुसाफिरी के समय वैराटपुर के क्षत्रिय वीर संग्रामसिंह के

यहाँ एक रात्रि मेहमान रह कर उनकी पुत्री जालणदेवी के साथ सम्बन्ध किया था । बाद आपने उपकेशपुर आबाद करने के पश्चात् उनके साथ शादी कर ली थी। उसी जालन देवी के एक पुत्री हुई थी जिसका नाम सौभाग्य सुन्दरी रखा था।

इधर मंत्री ऊह्ड के एक पुत्र हुआ जिसका नाम त्रिलोक्यसिंह रखा था । भाग्यवशात् राजा उत्पलदेव ने नगर आबाद करवाने में मंत्री ऊड का उपकार समझ अपनी पुत्री सौभाग्यसुन्दरीका विवाह मंत्री पुत्र त्रिलोक्यसिंह के साथ कर अपने पर जो ऋण था उसे हलका कर दिया था । वे दम्पति आनन्द में अपना संसार निर्वहन कर रहे थे।

थली प्रान्त में एक पीणा* जाति का सर्प होता है । लघु शरीर होने पर भी उसका विष गुरु होता है । जिस किसी को काटा हो तो फिर उसके जीवन की आशा कम ही रहती है।

भाग्यवशात एक समय राजकन्या अपने पतिदेव की शय्या पर सो रही थी । रात्रि में अकस्मात् पीणा सर्प ने मंत्रीपुत्र त्रिलोक्यसिंह को काट खाया । जिनका विष उसके सब शरीर में व्याप्त हो गया । जब राजपुत्री ने जागृत हो अपने पतिदेव के शरीर को विष व्याप्त पाषाणवत देखा तो एकदम दु:ख के साथ रुदन करने लगी।

जिनको सुन कर सब कुटुम्ब एकत्रित हुआ और कुमार की दशा पर करुण क्रन्दन करने लगा । इधर बहुत से मंत्र तंत्रवादियों को बुलाया गया । उन्होंने अपना – अपना उपचार किया पर उन सबके सबने निराश होकर कह दिया कि राजजमाई मृत्यु को प्राप्त हो गया । अब उसका शीघ्र अग्निसंस्कार कर देना चाहिये।

बस ! फिर तो दु:ख का पार ही क्या था ? कारण इस प्रकार की मृत्यु उस समय बहुत कम होती थी। जिसमें भी मंत्रीपुत्र एवं राजजमाई की युवकवय में यकायक मृत्यु हो जाना बड़े ही दु:ख की बात थी । नगर भर में हाहाकार मच गया । पर इसका उपाय भी तो क्या था ? उस मृत कुमारके लिए एक बैकुंटी (मंडी) बना कर उसमें बैठा कर श्मशान की ओर जाने लगे । इधर राजकन्या अपने पतिदेव के साथ जल कर सतित्व धर्म रखने के लिये अश्वारुढ़ हो बैकुट के साथ हो गई।

नगर में शोक के काले बादल सर्वत्र छा गये थे । राजा, मंत्री और नगर के लोग रुदन करते हये राजजामाता की स्मशान यात्रा के लिये जा रहे थे । भाग्यवशात् रास्ते में एक लघु साधु ने आकर उन लोगों से कहा अरे मूर्ख लोगो ! इस जीते ये मंत्रीपुत्र को जलाने के लिये स्मशान क्यों ले जा रहे हो ? बस, फिर तो था ही क्या ? उन लोगों ने जाकर राजा एवं मंत्री से सब हाल निवेदन किया । अत: उनके अन्तरात्मा में कुछ चैतन्याता जागृत हुई । शिघ्र ही कहा की उस साधु को यहाँ लाओ । जब साधुको हुँढ़ने को गये तो वह नहीं मिला । इस हालत में सब की सम्मति हुई कि बहूत अर्से से शहर के बाहर लुणाद्री पहाड़ी पर कई साधु आये हुये हैं और वह लघु साधु भी उनके अन्दर से एक होगा, अत: मृतकुमार को लेकर वहाँ ही चलना चाहिये । बस गरजवान क्या नहीं करते हैं ?

सब लोग चल कर सूरिजी के पास आये और राजा तथा मंत्री हाथ जोड़ कर दीनस्वर से कहने लगे । कि हे दयासिन्धो ! आज हमारे पर दुर्दैव का कोप होने से हमारा राज्य शून्य हो गया है । हमारे पुत्र रुपी धन को मृत्यु रुपी चोर ने हरण कर लिया है । हे

करुणावतार ! आज हमारे दु:ख का पार नहीं है, अत: आप कृपा कर हमारे संकट को दूर कर पुत्र रुपी भिक्षा प्रदान करें । आप महात्मा हैं, रेख में मेख मारने को समर्थ हैं इत्यादि नम्रता पूर्वक प्रार्थना की।

इस पर वीरधवलोपाध्याय ने समय एवं लाभालाभ का कारण जान उन लोगों से कहा कि थोड़ा गर्म जल होना चाहिये । बस पास में ही नगर था और आज तो घर २ में गरम जल था । एक आदमी जाकर गर्मं जल लाया । उस गर्म जल से सूरिजी के चररांगुष्ठ का प्रक्षालन कर इस जल को मंत्री पुत्र पर डाला । बस, फिर तो था ही क्या, मंत्रीपुत्र के शरीर से विष चोरों की तरह भाग गया और मत्रीपुत्र खड़ा हो कर इधर उधर देखने लगा।

सब लोग आश्चर्यचकित हो गये । चारों ओर हर्ष के नाद एवं बाजे बजने लगे । और सबके मुंह से यही शब्द निकलने लगे कि आज इन महात्मा की कृपा से मंत्रीपुत्र ने नया जन्म लिया है । अर्थात् काल के गाल में गया हुआ राजजमाई जीवित हो गया है इत्यादि । अब तो नगर में सर्वत्र श्री रत्नप्रभसूरि और जैनधर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी।

राजा और मंत्री ने सोचा कि महात्मा का अपने पर महान उपकार हुआ है तो प्रत्युपकार के लिये अपने को भी महात्मा का उचित सत्कार करना चाहिये । अत: उन्होंने अपने खजांचियों को हक्म कर दिया कि तुम्हारे पास कोष में जितने बढ़िया से बढ़िया रत्न मणियां हो वह सूरिजी की भेंट कर दो । तत्पश्चात महात्माजी की जयध्वनि और हर्ष वाजित्रों के साथ मंत्रीपुत्र को लेकर नगर की ओर चले गये और सर्व नगर में महान हर्ष के साथ सूरिजी की भूरि

भूरि प्रशंसा करने लगे । वे ही लोग क्या, पर चमत्कार को नमस्कार सर्वत्र हुआ ही करता है।

जब राजखजांचियों ने बहमूल्य रत्नमणि आदि लेकर सूरिजी की सेवा में भेंट की तो सूरिजी सोचने लगे कि अहो संसारलुब्ध जीवों की अज्ञानता कि जिस परिग्रह को ज्ञानियों ने अनर्थ का मूल बतलाया है संसार में जितने पौद्गलिक सुख:दुख और तृष्णा है उनका मूल कारण परिग्रह ही है तथा मैं अनर्थ का मूल और संसार की वृध्दि समझ कर परिग्रह का त्याग कर आया हूँ । उसको ही संसारी लोग एक महत्व की वस्तु समझ यहां लाकर मुझे खुश करना चाहते हैं इत्यादि, विचार करते हुए आप विशेष उदासीनता के साथ केवल ध्यान में ही मस्त रहे।

इस पर खजांचियों ने सोचा कि शायद् महात्मा इतने थोड़ा द्रव्य से संतुष्ट नहीं हये हों, उन्होंने जाकर राजा एवं मंत्री से कहा कि हमारी भेंट महात्माजी ने स्वीकार नहीं की है । अत: आप जो कुछ हुक्म फरमा वैसा ही किया जाय ।

मंत्री ने राजा से कहा कि अपनी बड़ी भारी गलती हुई है कि जिन महात्मा का अपने पर इतना बड़ा उपकार हुआ उनके लिये अपने नौकरों से भेंट करवाई । अत: खुद अपने को चलना चाहिये । बस, फिर तो देरी ही क्या थी ? चार प्रकार की सेना तैयार करवाई

और सर्व नगर में इत्तला करवा दी । अत: बड़े ही समारोह से राजा मंत्री एवं नागरिक लोगों ने सूरिजी के चरण कमलों में आकर वन्दन कर नम्रता के साथ प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आपका तो हम लोगों पर महान उपकार है, पर हम कृतघ्नी लोग उसको भूल कर आपका कुछ भी स्वागत नहीं कर सके । अत: उस अपराध को तो क्षमा करें और यह हमारा राज्य को स्वीकार कर हम लोगों को कुछ कृतार्थ बनावें इत्यादि।

सूरीश्वरजी ने लाभालाभ का कारण जान कर एवं ध्यान से निर्वृति पाकर आये हो उन राजादि को कहा कि हैं राजन ! आप भले मेरा उपकार समझे, पर मैनें अपने कर्तव्य के अलावा कुछ भी अधिकता नहीं की हैं । क्योंकि हम लोगों ने स्वात्मा के साथ जनता के कल्याण के लिये ही योग धारण किया है । दूसरे आप जो रत्नादि द्रव्य और राज का आमंत्रण करते हैं वह ठीक नहीं क्योंकि अभी आपको यह ज्ञान नहीं है कि यह पदार्थ आत्म कल्याण में साधक हैं या बाधक ? इन पुद्गलिक पदार्थों एवं राज से हम निस्पृही योगियों को किसी प्रकार से प्रयोजन नहीं है इत्यादि।

राजा मंत्री और नागरिक लोग सूरिजी महाराज के निसस्पृहता के शब्द सुन कर मंत्र मुग्ध एवं एकदम चकित हो गये

और मन ही मन में विचार करने लगे कि अहो । आश्चर्य कि कहां तो अपने लोभानन्दी गुरु कि जिस द्रव्य के लिये अनेक प्रयत्न एवं प्रपंच कर जनता को त्रास देकर द्रव्य एकत्र करते हैं तब कहां इन महात्मा की निर्लोभता कि बिना किसी कोशिश के आये हुए अमूल्य द्रव्य को ठुकरा रहे हैं । वास्तव में सच्चे साधुओं का तो यही लक्षण है । हमें तो अपनी जिन्दगी में ऐसे निस्पृही साधुओं के पहिले ही पहल दर्शन हये हैं । फिर भी दुख इस बात का है कि ऐसे परम योगीश्वर अपने नगर में कई अर्से से विराजमान होने पर भी हम हतभाग्यों ने और तो क्या पर दर्शन मात्र भी नहीं किया । इनके खान पान का क्या हाल होता होगा ? इस वर्षा ऋतु में बिना मकान यह कैसे काल निर्गमन करते होंगे इत्यादि, विचार करते हुए राजा ने पुन: प्रार्थना की कि हे दयानिधी ! यदि इस द्रव्य एवं राज को आप स्वीकार नहीं करते हैं तो हमें ऐसा रास्ता बतलाइये कि हम आपके उपकार का कुछ तो बदला दे सकें ? क्योंकि हम लोग आपके आचार व्यवहार से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं।

सूरिजी ने कहा राजेन्द्र ! हम लोग अपने लिये कुछ भी नहीं चाहते है हम केवल जनकल्याणार्थ भ्रमण करते हैं । हमारा कार्य यह है कि उन्मार्ग से भवान्तर में दु:खी जीवों को सन्मार्ग पर लाकर सुखी बनाना । राजा तथा प्रजा द्वारा जैन धर्म स्वीकार करना यदि आप लोगों की इच्छा हो तो धर्म का स्वरुप सुन कर जैन धर्म को स्वीकार कर लो ताकि इस लोक और परलोक में आपका कल्याण हो । आचार्य भगवान की आज्ञा मानकर 3,84,000 राजपूतोने जैन धर्म अंगीकार किया । यह घटना वीर नि. सं. 70 की है।